शनिवार, 4 अप्रैल 2015

तेरा हिज्र मेरा नसीब है



तेरा हिज्र यानी विरह, जुदाई। तेरा हिज्र मेरा नसीब है। यानी तुझसे विरह ही मेरे नसीब में है। यूं तो ये एक फिल्मी गीत की ओपनिंग लाइन है। मग़र ये गाना, इसकी लाइनें ग़ज़ब की कशिश रखती हैं। कमाल अमरोही के फिल्मी शाहकार, रज़िया सुल्तान का ये गीत, निदा फ़ाज़ली के क़लम से निकला और ख़य्याम की धुनों से सजा है। और इस गीत को आवाज़ दी कब्बन मिर्ज़ा ने.

आज बात उन्हीं कब्बन मिर्ज़ा की...संगीत के शैदाइयों के हिस्से में कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में महज़ दो गीत आए। इनमें से एक तो हर्फ़ ब हर्फ़ कब्बन और उनकी आवाज़ के प्रेमियों के बीच की दूरी का पयाम बन गया।

तेरा हिज्र मेरा नसीब है...तेरा ग़म ही मेरी हयात है...

https://www.youtube.com/watch?v=5dXfVXJBsz4

कमाल अमरोही की फिल्म रज़िया सुल्तान में ये गीत, हिंदुस्तान की सुल्तान रज़िया के हबशी आशिक़, याक़ूब पर फ़िल्माया गया था। अब चूंकि ये गाना एक हबशी...जोकि काला कलूटा, लंबे चौड़े बदन वाले शख़्स पर फ़िल्माया जाना था...तो कमाल अमरोही ने ऐसी आवाज़ की तलाश शुरू की जो याकूत की शख़्सीयत पर फिट बैठे।

कहने वाले कहते हैं कि परफेक्शन की तलाश में अमरोही साहब ने यही कोई पचास लोगों के ऑडिशन लिए और तब जाकर उन्हें कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़, याकूत के किरदार से मेल खाती लगी।

फिल्म रज़िया सुल्तान के लिए कब्बन मिर्ज़ा ने जो पहला गीत गया था वो था--

आयी ज़ंजीर की झंकार ख़ुदा ख़ैर करे....

https://www.youtube.com/watch?v=4rRE7YLdFmM

ये गीत रचा था जांनिसार अख़्तर ने, जो आज के नामचीन गीतकार जावेद अख़्तर के वालिद और मल्टी टैलेंटेड फरहान अख़्तर के दादा थे।

और फिल्म में हबशी याकूत पर फ़िल्माया गया दूसरा गीत, तेरा हिज्र मेरा नसीब है...कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में रिकॉर्ड दूसरा गीत था।

ऐसी रूहानी आवाज़ वाले कब्बन साहब के सुरों के केवल दो नगीने ही आज हमारे हासिल हैं।

वैसे...कब्बन मिर्ज़ा साहब के बारे में बहुत ही कम मालूमात हमारे पास है। कहते हैं कि कब्बन मिर्ज़ा, लखनऊ के रहने वाले थे। जहां शिया मुसलमान बड़ी तादाद में रहते हैं।
तो, कहते हैं कि कब्बन मिर्ज़ा, मुहर्रम में नौहाख़्वानी किया करते थे. यानी वो दर्द भरे नौहे और मरसिये पढ़ा करते थे। उनकी आवाज़ में आई ग़ज़ब की रूहानियत शायद इसी नौहाख़्वानी से पैदा हुई।

अंदाज़े से कहा जाता है कि कब्बन मिर्ज़ा, आज़ादी के पहले के हिंदुस्तान में चालीस के दशक में पैदा हुए थे। साल, 1938 था या 37, कोई पक्के तौर पर बताने वाला नहीं।

रज़िया सुल्तान के गानों को गाकर शोहरत पाने से पहले कब्बन मिर्ज़ा, विविध भारती में लंबे वक़्त तक अनाउंसर रहे। बताते हैं कि साठ के दशक में वो संगीत सरिता और छाया गीत नाम के प्रोग्राम के अनाउंसर थे। भारी आवाज़ वाले कब्बन मिर्ज़ा को रज़िया सुल्तान के गीतों के पहले या बाद में फिल्मी गानों के बेहद कम मौक़े मिले।

ज़िंदगी ने भी उनके बड़े सख़्त इम्तिहान लिए। उन्हें दो दो बार कैंसर हुआ। नब्बे के दशक में एक बार तो उन्होंने कैंसर से जंग जीत भी ली।

मग़र इस राक्षस ने उन पर दोबारा हमला किया और उनकी शख़्सीयत की सबसे बड़ी पहचान, उनकी बुलंद आवाज़ को ही छीन लिया।

कब्बन मिर्ज़ा का आख़िरी वक़्त, बड़ी मुफ़लिसी में गुज़रा और लोग बाग कहते हैं कि उन्होंने ठाणे के उपनगर मुम्ब्रा में अपनी आख़िरी सांसें लीं। कब..ये किसी को पता नहीं।

जानकार बताते हैं कि रज़िया सुल्तान के अलावा कब्बन मिर्ज़ा ने शीबा नाम की फिल्म और कुछ गुमनाम फिल्मों के गानों को भी आवाज़ दी थी। मग़र, न वो गाने रिकॉर्ड में हैं न वो फिल्में।

यानी कब्बन मिर्ज़ा मरहूम की आवाज़ में ऑन रिकॉ़र्ड केवल दो गाने हैं, वो भी रज़िया सुल्तान को...

उनकी आवाज़ के ऐतमाद से ये कहा जा सकता है ख़ुदा ने कब्बन मिर्ज़ा साहब को जन्नत बख़्शी होगी।